मुझे पिछले कईं बरसों में कईं बार यह ख़्याल आया कि मुझे फोटोकापी के बारे में भी तो अपने संस्मरण लिखने चाहिए ...लेकिन पता नहीं मैं अपने आलस की वजह से इसे टालता ही रहा ... मैं बहुत से कामों को टालता रहता हूं...
चलिए कोई बात नहीं, आज लिखते हैं...हां, तो पहले यह लिखता चलूं कि आप को भी ...विशेषकर जो आज के युवा हैं...उन्हें तो यह देख कर बहुत ही ज़्यादा हैरानी होती होगी कि फोटोस्टैट के ज़माने से पहले भी लोगों के काम हो जाया करते थे ... यहां यह भी लिख दें कि अटैस्टेड कापी का चलन तो हम लोगों ने बचपन से ही देखा ... मेरे भाई-बहनों के सर्टिफिकेट पहले हु-बहू मेरे पिता जी कहीं से टाइप करवाते ...फिर उसे किसी अफ़सर के पास ले जाकर ओरिजिनल सर्टिफिकेट दिखा कर उसे अटैस्ट करवा के लाते ...हमें यह देख कर ही लगता कि यह कितनी सिरदर्दी है ...पहले एक सर्टिफिकेट की नकल हु-ब-हू टाइप करवाओ, फिर उसे सत्यापित करवाते फिरो...
लेकिन यह 1980 की बात है ...मेरा पीएमटी का रिजल्ट आया था ...रिजल्ट कार्ड मिल गया ...अब मुझे उस की कापी के साथ मेडीकल कालेज के दाखिले के लिए अप्लाई करना था ...उस दिन ही कहीं से पता चला कि सर्टिफिकेट की फोटोस्टेट हो जाती है ...पुतली घर में एक दुकानदार ने नई नईं मशीन लगाई है। मैं साईकिल चला कर वहां पहुंच गया ...पहले तो उस दुकानदार ने उस प्रमाण-पत्र का मुआयना किया जैसे कि मैं हिंदोस्तान की कोई ख़ुफिया जानकारी की नकल करवाने आया हूं। फिर उस का साईज़ देख कर कहने लगा कि दो रूपये लगेंगे ...दो रूपये उन दिनों बहुत बड़ी बात थी...
बहरहाल, हमने उसे कहा कि हां, कर दीजिए इस की एक फोटोकापी....मुझे अभी भी याद है कि वह उस सर्टिफिकेट को लेकर जिस मशीन पर चढ़ा , मैं देख कर हैरान हो रहा था ..जैसे आटा चक्की की मशीन होती थी, उससे तो छोटी ही थी ..लेकिन मुझे याद है वह एक स्टूल लेकर उस पर चढ़ गया ...हाथ में उस के एक मैटल की चोकोर सी प्लेट थी ...जैसे एक्स-रे करने वालों के हाथ में हुआ करती थी...उसे वह हिला रहा था ...जैसे उस के अंदर पड़े टोनर को (यह नाम तो कईं बरसों बाद पता चला) हिला डुला रहा हो ....वह यह सब कर रहा था मुझे एक दो डर परेशान कर रहे थे ...कि यह फोटोस्टेट की प्रोसैस जितनी पेचीदा सी लग रही है, अगर इसे करने के चक्कर में मेरा सर्टिफिकेट कहीं अंदर ही फंस गया, मुचड़ गया या फट गया तो मैं क्या करूंगा ...मेरी तो सीट गई ..खैर, मैंने हिम्मत रखी, और उस समय रख भी क्या सकता था...और दो चार मिनट में एक फोटोकापी निकाल कर वह दुकानदार बाहर ले आया...मैं बहुत से लोगों से इस बात को शेयर करता हूं कि उस दिन मुझे ऐसी फील आ रही थी जैसे इस की इतनी बड़ी मशीन कहीं फट तो नहीं जाएगी...जब मैं उसे एक फोटोकापी के लिए इतनी मशक्कत करते देख रहा था तो मुझे बीच बीच में नकली नोट छापने वाली मशीन की याद भी आ रही थी ....शायद तब तक दस नंबरी फिल्म आ चुकी थी ...जिसमें यही धंधा चलता है।
खैर, वह मेरी फोटोकापी थी ...अमृतसर के पुतलीघर बाज़ार से ..मैंने साईकिल पर सवार हो कर घर लौट आया... लेकिन उस के बाद भी मुझे याद नहीं कि फोटोकापी करवाना इतना आम बात हो गयी हो ...हां, यही सर्टिफिकेट आदि के लिए ही इस का इस्तेमाल होता था ...उस के बाद फिर उसे अटैस्ट करवाना पड़ता था।
एक बात जो यहां लिखना बहुत ज़रूरी है कि अगर हम लोग कोई क्लास मिस कर देते थे तो अपनी क्लास के किसी साथी से उस की नोटबुक लेकर उस लेक्चर के नोट्स कापी कर लिया करते थे.... यह सब लिखने से बड़ा फायदा होता था ...आधा तो समझ में आ जाता था, और आधा याद हो जाता था ...फिर जो नहीं समझ आता था उस के बारे में किसी से बात कर लेते थे, उसे फिर पढ़ लेते थे ..बस हो गया अपना काम ....लेकिन अभी लिखते लिखते ख़्याल आ रहा है कि उन्हीं दिनों एक ट्रेंड यह चल निकला था जिसमें अगर किसी ने कोई क्लास मिस करनी है तो वह अपने किसी साथी को नोट्स की कापी करने को कह दिया करता था ...और मैंने यह काम लड़कियों को ही करते देखा ...लड़के वैसे ही आलसी किस्म के थे हमारे साथ ... और नोट्स की कापी करने के लिए थोड़ी मेहनत तो करना पड़ती थी ...दो कागज़ के बीच कार्बन लगाना और बार बार उसे बदलना ...ख़ास दोस्त ही इतनी ज़हमत उठाया करते थे।
बहरहाल, ये सब 1980 के दशक की बातें हैं ....1984-85 तक की ...इस के बाद हमनें देखा कि फोटोस्टेट की सुविधा कुछ कुछ आम सी ही होने लगीं...1987 के आते आते हम लोग मैडीकल जर्नल के आर्टिकल फोटोस्टेट करवा कर फाइल में सजाने लगे ...सच मानिए...वे सजे ही रहते ..कभी मुझे तो उन्हें पढ़ने की फ़ुर्सत मिली ... यह मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि मैंने फोटोस्टेट करवाने पर हज़़ारों रूपये तो खर्च कर ही दिए होंगे ...लेकिन मुझे नहीं याद कि कभी किसी फोटोस्टेट कागज़ को उतनी शिद्दत से पढ़ा हो जितना अपने ख़ुद के हाथ से अपनी नोटबुक पर लिखे नोट्स को पढ़ते थे।
और हां, 1980 के दशक के आखिर वाले सालों में फोटोस्टेट की हुई किताबें और नोट्स भी बिकने लगे ...अब पता नहीं उन से पढ़ने वालों ने कितना फायदा उठाया होगा या नहीं।
वही बात है जितनी चीज़ आसानी से मिल जाती है उस की उतनी कद्र भी कम हो जाती है ... मैं बंबई की ब्रिटिश लाइब्रेरी का मेंबर था ..वहां पर बहुत ही बढ़िया बढ़िया किताबें थीं...मैंने उन की फोटोकापी करवाना शुरु किया ...तो दो-ढ़ाई सौ किताबें मेरे पास जमा हो गईं ...उन की बाँइडिंग भी करवा ली ...लेकिन ढीठ भी ऐसा था कि किसी को पढ़ा नहीं ...जहां जहां बदली होती रही, उस सिरदर्दी को ढोते रहे ...कुछ साल पहले उन में दीमक लग गई तो शुक्र किया 😂और उन सब को आग लगा कर उन से निजात पा ली...यह है फोटोकापी की हुई किताबों का हश्र....लेकिन यह पर्सनल एक्सपिरिएंस है....शायद लोग अच्छे से इनका फ़ायदा उठाते हों ...मैं कुछ नहीं कह सकता ...क्योंकि मैंने कभी भी फोटोकापी किए हुए कागज़ से कुछ नहीं पढ़ा...मुझे हमेशा ही से क्लास में लिए गए नोट्स और टेक्सट-बुक का ज्ञान मिला कर अपने नोट्स लिखना ही अच्छा लगता था ...और राज़ की एक बात बताता चलूं ...मुझे यह सब लिखते लिखते ही ज़्यादातर लेक्चर याद हो जाया करते थे। कभी अलग से रटने की ज़रूरत पड़ी नहीं, न ही मेरे को यह सब इतना पसंद था ... मुझे किसी लेक्चर को पांच बार लिखना मंज़ूर था, उसे तोते की तरह रटना नहीं।
मेरे ख़्याल में फोटो स्टेट की बातें कुछ ज़्यादा ही लंबी खिंच रही हैं....बंद करें यार इसे अब ....लेकिन बंद करते करते आज आम आदमी ...वैसे आम क्या और ख़ास क्या, असली सिकंदर तो दफ़्तर के मेज़ों की दूसरी तरफ़ बैठे बाबू हैं...जो चाहें आप से किसी भी दस्तावेज़ की फोटोकापी मांग लें....ये डाकखाने में, बैंक में, आरटीओ में ....पेंशन के दफ़्तर में ...कहीं भी किसी भी सरकारी या गैर-सरकारी दफ़्तर में आधार, पैन, आई.डी, वोटर....इन्होंने ऐसे रट रखे हैं और पता नहीं कौन सा मांग लें ....और बहुत बार संयोग ऐसा होता है कि वे जो फोटोकापी मांगते हैं वह आप के पास होती नहीं, और कईं बार तो उस का ओरीजिनल भी उस दिन आप अपने थैले में डालना भूल गये होते हैं सुबह ....आज के युवा भी जगह जगह टैटू-वैटू करवाने के चक्कर में हज़ारों रूपये खर्च कर रहे हैं...अगर मेरी मानें (लेकिन मानें क्यों!) तो इन्हीं दस्तावेज़ों के टैटू ही बनवा लें शरीर पर ...अगर मैं आज 20-25 बरस का होता तो शायद मैं तो यह काम करवा ही लेता ...क्योंकि मुझे वैसे तो बैंक और डाकखाने में जाना और वहां लाइनों में खड़ा होना बड़ा खराब लगता है ... और ऊपर से हर बार एड्रेस प्रूफ, के.वाई-सी ....करते करते मैं तो थक गया हूं ....
मुझे ऐसी जगहों पर कम पढ़े लिखे या अनपढ़ लोग बहुत अच्छे लगते हैं...ईर्ष्या होती है कईं बार ..वे अकसर सरकारी दफ्तरों में ये सारे दस्तावेज़ इन की फोटोकापियों को एक प्लास्टिक की पन्नी में डाल कर पहुंचे होते हैं ... बाऊ के किसी कागज़ की मांग करने पर वह पन्नी उस के सामने कर देते हैं ... जो कागज़ चाहिए निकाल ले, जहां अंगूठा टिकवाना है, टिकवा ले ..लेकिन काम कर दे बस। और दूसरी तरफ़ पढ़ा लिखा बुद्धिजीवि यूं ही एक कागज़ की फोटोकापी के लिए बाऊ से उलझ जाता है, पंगा ले लेता है ...होता तो दोस्तो वही है जो बाऊ चाहेगा ..फ़िज़ूल में बात बढ़ जाती है ..लेकिन उसे भी फोटोकापी तो करवा के लानी ही पड़ती है ...
मेरा एक सपना है ....ये जो आधार वार बने हैं...इन की फोटोकापी की कहीं ज़ूरूरत ही न हो ...हर जगह मशीनें लगी हों....बंदा अपना आधार कार्ड दिखाए और आप उस के फिंगर-प्रिंट मशीन से जांच कर यह देख लो कि बंदा वही है ...बस और क्या...बार बार हर जगह फोटोकापी ....इतनी रद्दी ही जमा हो रही है ...
बात वहीं पर आ कर खत्म हो रही है कि किसी भी फोटोस्टेट की दुकान पर पांच मिनट जब आप खड़े होते होंगे तो मेरी तरह आप भी सोच में ज़रूर पड़ जाते होंगे कि यार, इस फोटोस्टैट मशीन के आने से पहले दुनिया चल कैसे रही थी...
आप को अपना एक मनपसंद फिल्मी गीत सुनाता हूं ...आइए बहार को हम बांट लें....