Friday, April 9, 2021

वो फोटोकापी मशीन थी या कोई रॉकेट लांचर

मुझे पिछले कईं बरसों में कईं बार यह ख़्याल आया कि मुझे फोटोकापी के बारे में भी तो अपने संस्मरण लिखने चाहिए ...लेकिन पता नहीं मैं अपने आलस की वजह से इसे टालता ही रहा ... मैं बहुत से कामों को टालता रहता हूं... 

चलिए कोई बात नहीं, आज लिखते हैं...हां, तो पहले यह लिखता चलूं कि आप को भी ...विशेषकर जो आज के युवा हैं...उन्हें तो यह देख कर बहुत ही ज़्यादा हैरानी होती होगी कि फोटोस्टैट के ज़माने से पहले भी लोगों के काम हो जाया करते थे ... यहां यह भी लिख दें कि अटैस्टेड कापी का चलन तो हम लोगों ने बचपन से ही देखा ... मेरे भाई-बहनों के सर्टिफिकेट पहले हु-बहू मेरे पिता जी कहीं से टाइप करवाते ...फिर उसे किसी अफ़सर के पास ले जाकर ओरिजिनल सर्टिफिकेट दिखा कर उसे अटैस्ट करवा के लाते ...हमें यह देख कर ही लगता कि यह कितनी सिरदर्दी है ...पहले एक सर्टिफिकेट की नकल हु-ब-हू टाइप करवाओ, फिर उसे सत्यापित करवाते फिरो...

लेकिन यह 1980 की बात है ...मेरा पीएमटी का रिजल्ट आया था ...रिजल्ट कार्ड मिल गया ...अब मुझे उस की कापी के साथ मेडीकल कालेज के दाखिले के लिए अप्लाई करना था ...उस दिन ही कहीं से पता चला कि सर्टिफिकेट की फोटोस्टेट हो जाती है ...पुतली घर में एक दुकानदार ने नई नईं मशीन लगाई है। मैं साईकिल चला कर वहां पहुंच गया ...पहले तो उस दुकानदार ने उस प्रमाण-पत्र का मुआयना किया जैसे कि मैं हिंदोस्तान की कोई ख़ुफिया जानकारी की नकल करवाने आया हूं। फिर उस का साईज़ देख कर कहने लगा कि दो रूपये लगेंगे ...दो रूपये उन दिनों बहुत बड़ी बात थी...

बहरहाल, हमने उसे कहा कि हां, कर दीजिए इस की एक फोटोकापी....मुझे अभी भी याद है कि वह उस सर्टिफिकेट को लेकर जिस मशीन पर चढ़ा , मैं देख कर हैरान हो रहा था ..जैसे आटा चक्की की मशीन होती थी, उससे तो छोटी ही थी ..लेकिन मुझे याद है वह एक स्टूल लेकर उस पर चढ़ गया ...हाथ में उस के एक मैटल की चोकोर सी प्लेट थी ...जैसे एक्स-रे करने वालों के हाथ में हुआ करती थी...उसे वह हिला रहा था ...जैसे उस के अंदर पड़े टोनर को (यह नाम तो कईं बरसों बाद पता चला) हिला डुला रहा हो ....वह यह सब कर रहा था मुझे एक दो डर परेशान कर रहे थे ...कि यह फोटोस्टेट की प्रोसैस जितनी पेचीदा सी लग रही है, अगर इसे करने के चक्कर में मेरा सर्टिफिकेट कहीं अंदर ही फंस गया, मुचड़ गया या फट गया तो मैं क्या करूंगा ...मेरी तो सीट गई ..खैर, मैंने हिम्मत रखी, और उस समय रख भी क्या सकता था...और दो चार मिनट में एक फोटोकापी निकाल कर वह दुकानदार बाहर ले आया...मैं बहुत से लोगों से इस बात को शेयर करता हूं कि उस दिन मुझे ऐसी फील आ रही थी जैसे इस की इतनी बड़ी मशीन कहीं फट तो नहीं जाएगी...जब मैं उसे एक फोटोकापी के लिए इतनी मशक्कत करते देख रहा था तो मुझे बीच बीच में नकली नोट छापने वाली मशीन की याद भी आ रही थी ....शायद तब तक दस नंबरी फिल्म आ चुकी थी ...जिसमें यही धंधा चलता है। 

खैर, वह मेरी फोटोकापी थी ...अमृतसर के पुतलीघर बाज़ार से ..मैंने साईकिल पर सवार हो कर घर लौट आया... लेकिन उस के बाद भी मुझे याद नहीं कि फोटोकापी करवाना इतना आम बात हो गयी हो ...हां, यही सर्टिफिकेट आदि के लिए ही इस का इस्तेमाल होता था ...उस के बाद फिर उसे अटैस्ट करवाना पड़ता था। 

एक बात जो यहां लिखना बहुत ज़रूरी है कि अगर हम लोग कोई क्लास मिस कर देते थे तो अपनी क्लास के किसी साथी से उस की नोटबुक लेकर उस लेक्चर के नोट्स कापी कर लिया करते थे.... यह सब लिखने से बड़ा फायदा होता था ...आधा तो समझ में आ जाता था, और आधा याद हो जाता था ...फिर जो नहीं समझ आता था उस के बारे में किसी से बात कर लेते थे, उसे फिर पढ़ लेते थे ..बस हो गया अपना काम ....लेकिन अभी लिखते लिखते ख़्याल आ रहा है कि उन्हीं दिनों एक ट्रेंड यह चल निकला था जिसमें अगर किसी ने कोई क्लास मिस करनी है तो वह अपने किसी साथी को नोट्स की कापी करने को कह दिया करता था ...और मैंने यह काम लड़कियों को ही करते देखा ...लड़के वैसे ही आलसी किस्म के थे हमारे साथ ... और नोट्स की कापी करने के लिए थोड़ी मेहनत तो करना पड़ती थी ...दो कागज़ के बीच कार्बन लगाना और बार बार उसे बदलना ...ख़ास दोस्त ही इतनी ज़हमत उठाया करते थे। 

बहरहाल, ये सब 1980 के दशक की बातें हैं ....1984-85 तक की ...इस के बाद हमनें देखा कि फोटोस्टेट की सुविधा कुछ कुछ आम सी ही होने लगीं...1987 के आते आते हम लोग मैडीकल जर्नल के आर्टिकल फोटोस्टेट करवा कर फाइल में सजाने लगे ...सच मानिए...वे सजे ही रहते ..कभी मुझे तो उन्हें पढ़ने की फ़ुर्सत मिली ... यह मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि मैंने फोटोस्टेट करवाने पर हज़़ारों रूपये तो खर्च कर ही दिए होंगे ...लेकिन मुझे नहीं याद कि कभी किसी फोटोस्टेट कागज़ को उतनी शिद्दत से पढ़ा हो जितना अपने ख़ुद के हाथ से अपनी नोटबुक पर लिखे नोट्स को पढ़ते थे। 

और हां, 1980 के दशक के आखिर वाले सालों में फोटोस्टेट की हुई किताबें और नोट्स भी बिकने लगे ...अब पता नहीं उन से पढ़ने वालों ने कितना फायदा उठाया होगा या नहीं। 

वही बात है जितनी चीज़ आसानी से मिल जाती है उस की उतनी कद्र भी कम हो जाती है ... मैं बंबई की ब्रिटिश लाइब्रेरी का मेंबर था ..वहां पर बहुत ही बढ़िया बढ़िया किताबें थीं...मैंने उन की फोटोकापी करवाना शुरु किया ...तो दो-ढ़ाई सौ किताबें मेरे पास जमा हो गईं ...उन की बाँइडिंग भी करवा ली ...लेकिन ढीठ भी ऐसा था कि किसी को पढ़ा नहीं ...जहां जहां बदली होती रही, उस सिरदर्दी को ढोते रहे ...कुछ साल पहले उन में दीमक लग गई तो शुक्र किया 😂और उन सब को आग लगा कर उन से निजात पा ली...यह है फोटोकापी की हुई किताबों का हश्र....लेकिन यह पर्सनल एक्सपिरिएंस है....शायद लोग अच्छे से इनका फ़ायदा उठाते हों ...मैं कुछ नहीं कह सकता ...क्योंकि मैंने कभी भी फोटोकापी किए हुए कागज़ से कुछ नहीं पढ़ा...मुझे हमेशा ही से क्लास में लिए गए नोट्स और टेक्सट-बुक का ज्ञान मिला कर अपने नोट्स लिखना ही अच्छा लगता था ...और राज़ की एक बात बताता चलूं ...मुझे यह सब लिखते लिखते ही ज़्यादातर लेक्चर याद हो जाया करते थे। कभी अलग से रटने की ज़रूरत पड़ी नहीं, न ही मेरे को यह सब इतना पसंद था ... मुझे किसी लेक्चर को पांच बार लिखना मंज़ूर था, उसे तोते की तरह रटना नहीं। 

मेरे ख़्याल में फोटो स्टेट की बातें कुछ ज़्यादा ही लंबी खिंच रही हैं....बंद करें यार इसे अब ....लेकिन बंद करते करते आज आम आदमी ...वैसे आम क्या और ख़ास क्या, असली सिकंदर तो दफ़्तर के मेज़ों की दूसरी तरफ़ बैठे बाबू हैं...जो चाहें आप से किसी भी दस्तावेज़ की फोटोकापी मांग लें....ये डाकखाने में, बैंक में, आरटीओ में ....पेंशन के दफ़्तर में ...कहीं भी किसी भी सरकारी या गैर-सरकारी दफ़्तर में आधार, पैन, आई.डी, वोटर....इन्होंने ऐसे रट रखे हैं और पता नहीं कौन सा मांग लें ....और बहुत बार संयोग ऐसा होता है कि वे जो फोटोकापी मांगते हैं वह आप के पास होती नहीं, और कईं बार तो उस का ओरीजिनल भी उस दिन आप अपने थैले में डालना भूल गये होते हैं सुबह ....आज के युवा भी जगह जगह टैटू-वैटू करवाने के चक्कर में हज़ारों रूपये खर्च कर रहे हैं...अगर मेरी मानें (लेकिन मानें क्यों!) तो इन्हीं दस्तावेज़ों के टैटू ही बनवा लें शरीर पर ...अगर मैं आज 20-25 बरस का होता तो शायद मैं तो यह काम करवा ही लेता ...क्योंकि मुझे वैसे तो बैंक और डाकखाने में जाना और वहां लाइनों में खड़ा होना बड़ा खराब लगता है ... और ऊपर से हर बार एड्रेस प्रूफ, के.वाई-सी ....करते करते मैं तो थक गया हूं ....

मुझे ऐसी जगहों पर कम पढ़े लिखे या अनपढ़ लोग बहुत अच्छे लगते हैं...ईर्ष्या होती है कईं बार ..वे अकसर सरकारी दफ्तरों में ये सारे दस्तावेज़ इन की फोटोकापियों को एक प्लास्टिक की पन्नी में डाल कर पहुंचे होते हैं ... बाऊ के किसी कागज़ की मांग करने पर वह पन्नी उस के सामने कर देते हैं ... जो कागज़ चाहिए निकाल ले, जहां अंगूठा टिकवाना है, टिकवा ले ..लेकिन काम कर दे बस। और दूसरी तरफ़ पढ़ा लिखा बुद्धिजीवि यूं ही एक कागज़ की फोटोकापी के लिए बाऊ से उलझ जाता है, पंगा ले लेता है ...होता तो दोस्तो वही है जो बाऊ चाहेगा ..फ़िज़ूल में बात बढ़ जाती है ..लेकिन उसे भी फोटोकापी तो करवा के लानी ही पड़ती है ...

मेरा एक सपना है ....ये जो आधार वार बने हैं...इन की फोटोकापी की कहीं ज़ूरूरत ही न हो ...हर जगह मशीनें लगी हों....बंदा अपना आधार कार्ड दिखाए और आप उस के फिंगर-प्रिंट मशीन से जांच कर यह देख लो कि बंदा वही है ...बस और क्या...बार बार हर जगह फोटोकापी ....इतनी रद्दी ही जमा हो रही है ...

बात वहीं पर आ कर खत्म हो रही है कि किसी भी फोटोस्टेट की दुकान पर पांच मिनट जब आप खड़े होते होंगे तो मेरी तरह आप भी सोच में ज़रूर पड़ जाते होंगे कि यार, इस फोटोस्टैट मशीन के आने से पहले दुनिया चल कैसे रही थी...

आप को अपना एक मनपसंद फिल्मी गीत सुनाता हूं ...आइए बहार को हम बांट लें....

Thursday, April 8, 2021

एक दरख़्त जिससे दोस्ती तीस साल पुरानी है ...

ज़िंदगी के शुरूआती 28-29 बरस पंजाब में रहे ... फूल अच्छे लगते थे ...घर में उगते भी बहुत थे ...लेकिन पेड़ों के बारे में सोचने की शायद उस उम्र में फ़ुर्सत ही न थी ... मैंने घर में या आसपास के लोगों में पेड़ों के प्रति लगाव बस उस के फल खाने या उस की छांव का आनंद लेने तक ही देखा... मुझे अच्छे से याद है कि जैसे लोग ठंडी के मौसम का इंतज़ार करते रहते ....जैसे ही ठंडी पड़नी शुरू होती ... कश्मीर से हातो कॉलोनी में कुल्हाड़ी लेकर घूमते दिख जाते .. वे पेड़ काटने का काम करते थे। 

हमारे घर के बाशिंदों को लगता था कि घर के मेनगेट पर जो नीम का पेड़ है ..उस की वजह से धूप आंगन तक पहुंच नहीं पाएगी...इसलिए हर साल उसे कटवाना (वे इसे छंगवाना कहते थे- छंटाई करवाना) ज़रूरी होता था ...मुझे अच्छे से याद है वह हातो आठ-दस रूपये लेकर उस दरख़्त को छांग देता था....अच्छा, हम बच्चे थे, हमें इतनी कहां समझ थी....हम तो बस दोस्तों के साथ दूर बैठ कर उस हातो को फ़ुर्ती से उछल कर पेड़ पर चढ़ कर कुल्हाड़ी से दरख्त की बड़ी बड़ी शाखाएं काट काट नीचे फैंकते देख कर हैरान से हुए चुपचाप बैठे रहते ...उस दौर में हमें दरख़्तों से कुछ मतलब ही न था...छाया रहे, न रहे ...क्या फ़र्क पड़ता है ..। 

अच्छा, जिस दरख़्त की बड़ी बड़ी शाखाएं वह नीचे फैंकता, फिर नीचे आकर उस के छोटे टुकड़े भी करता ...चूल्हे में जलाने लायक ...। यह वह दौर था जब यह कुकिंग गैस नहीं आई थी ...लेकिन गैस के आने के बाद भी यह पेड़ की कांट-छांट के नाम पर पेड़ को ठंड़ी शुरू होते ही हर साल गंजा कर देने का सिलसिला चलता ही रहा...

यह बीमारी हमारे घर में ही न थी ...मुझे लगता है यह महामारी पूरी कॉलोनी में ही मौजूद थी ... क्योंकि एक बार हातो आता तो कईं पेड़ों पर कुल्हाड़ी चला कर ही जाता....

ऐसे माहौल में हमारा बचपन बीता ...ऐसे में जब कभी किसी बाग जैसी जगह जैसे अमृतसर के कंपनी बाग जाने का मौक़ा मिलता तो वहां बड़े बड़े पेड़ देख कर अच्छा लगता....उन दिनों अमृतसर की गुरूनानक देव यूनिवर्सिटी की इमारत भी नई बन ही रही थी ..वहां भी खूब पेड़ लग रहे थे ...वहां जब जाते थे तो अच्छा लगता था .. 

25-26 साल की उम्र में दिल्ली जाते या कभी चंडीगढ़ जाना होता तो वहां भी बड़े बड़े दरख़्त देख कर बहुत अच्छा लगता...इस के आगे कुछ नहीं...

लेकिन मैं इस वक्त एक ऐसे दरख़्त का किस्सा आपको सुनाना चाहता हूं जिससे मेरी दोस्ती 30 साल पुरानी है ...हैरानी है कि वह अभी भी टिका हुआ है ..लेकिन महानगरों में कानून-कायदे कड़क हैं, इसलिए पेड़ों को हाथ लगाना इतना आसान नहीं है। 

हां तो बात है यह 1991 की ...हम लोग बंबई में आए ही थे ...यह जो दरख्त आप इस तस्वीर में देख रहे हैं यह बंबई सेंट्रल के पास मराठा मंदिर सिनेमा से पैदल दो मिनट की दूरी पर है ...जिस कम्पलेक्स में हम रहते थे उस की बाउंड्री पर यह दरख़्त था ... उस के पास ही एक और भी क़दीमी दरख़्त था ...इन बड़े दरख़्तों को इतने पास से मैंने शायद पहली बार उन दिनों ही देखा होगा ...शायद देखा तो होगा पहले भी कहीं लेकिन हमें उस उम्र में इन सब फ़िज़ूल से लगने वाले "क़ुदरती नज़ारों" की फ़िक्र ही कहां होती है ...हम तो एक अच्छी सी नौकरी हथिया लेने के चक्कर में पड़े रहते हैं....

बहरहाल, यह जो दरख़्त है मुझे इसे आते जाते इसे देखना बहुत पसंद था ... यह जो गेट आप देख रहे हैं, यह गेट भी खुला रहता था....इस से बाहर निकलते ही दाईं तरफ़ बंबई सेंट्रल का बस डिपो है और आगे अग्रीपाड़ा शुरू हो जाता है ....

तीस साल पुराना दोस्त 

जब भी बंबई सेंट्रल की तरफ़ जाना होता रहा पिछले 30 साल में इस को देखने से पता नहीं अंदर से एक ख़ुशी का अहसास तो होता ही है ... दो दिन पहले भी उस तरफ़ जाना हुआ...मैंने बेटे को कहा कि ज़रा रूकना होगा ...मुझे मेरे 30 साल पुराने दोस्त के साथ तस्वीर खिंचवानी है ...वह ख़ुशी ख़ुशी रुक गया और मेरी तस्वीरें खींच दी ... वैसे भी मेरे पास मेरी खींची हुई पेड़ों की हज़ारों तस्वीरें हैं ...क्योंकि मैं जहां भी जाता हूं, मेरी नज़रें वहां के दरख्तों पर ही टिकी रहती हैं....मुझे और किसी चीज़ से कुछ मतलब नहीं होता...


एक बार जब 30 साल पहले मेरी इस क़दीमी दरख़्त के साथ दोस्ती हो गई तो उस के बाद मैं कहीं भी गया ...बंगलौर में, चैन्नई में या  यूएसए में ... कहीं भी ..पुराने पुराने पेड़ ही मुझे अपनी तरफ़ खींचते ..दो चार दिन दुबई रहने का मौका मिला ...लोग वहां की इमारतें देखने को तरसते ...मैं वापिस लौटने के दिन गिनता ...मुझे पुराने दरख़्तों के बिना वह शहर इतना कंगाल दिखा कि मैंने कहा कि अगर कभी मुझे कोई मुफ्त की टिकट देकर भी दुबई भेजे तो भी मैं न आऊं यहां...सच में मुझे वहां ज़रा भी अच्छा नहीं लगा..सारे का सारा कंक्रीट का जंगल ...शुक्र किया कि तीन चार दिन बीते और लौट के बुद्धु घर को आए....

अब घर में भी जितने दरख़्त हैं उन पर कुल्हाड़ी चलाना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा लगता है ...कईं कईं महीने हो जाते हैं घर गए हुए ...लेकिन जब जाते हैं तो वही पुराने बेतरतीब से उग रहे पेड़ देख कर भी सुकून ही मिलता है ... 

महीनों बाद घर जाते हैं तो दरख़्त इंतज़ार करते मिलते हैं...

एक काम करेंगे? ...जाते जाते यह गीत सुनते जाइए ... मधुबन खुशबू देता है ...सागर सावन देता है ... (इस लिंक पर क्लिक करिए)

 

Monday, April 5, 2021

ज़िंदगी इक सफ़र है सुहाना ....

 जब पुराने सफ़र की बातें याद आती हैं तो कितना अच्छा लगता है! अकसर ये सफ़र मां के साथ, पूरे परिवार के साथ किए जाते थे ... कैसे ट्रेन छूटने से पहले ही जा कर स्टेशन पर बैठ जाना...हमारा सारा ध्यान पूरी-छोले खाने पर, लोटपोट और चंदामामा खरीदने पर और एक छोटा सा स्कूटर हथिया लेने पर ही रहता ... अगर अमृतसर से अंबाला जा रहे हैं तो फ़क़त एक रेक्सीन की या चमड़े की अटैची होती जिस की हिफ़ाज़त के लिए उस पर मोटे कपड़े का कवर चढ़वा लिया जाता...

हिफ़ाज़त से बात याद आई ...आज से ४०-५० साल पहले वाला दौर वह था जब बस इसी तरह की हिफ़ाज़त ही दरकार की ...सामान की ...उस अटैची में पड़े ज़ेवरात की ...जिन्हें भी अकसर किसी शादी-ब्याह में जाते वक्त साथ ही लेकर चला जाता था...लेकिन बच्चों की हिफ़ाज़त कोई इतना मुद्दा नहीं था...क्योंकि आपसी भरोसा कायम था ...मुझे धुंधली याद है कि जब लुधियाना स्टेशन आता, मुझे प्यास लगती ...तो मां देखती अगर कोई आदमी डिब्बे से बाहर निकल रहा है तो उसे पुकार कर कहती ..भाई साहब, ज़रा इसे भी पानी पिला देना। 

हम यह सुनते ही उस अनजान आदमी के साथ हो लेते ...वह प्लेटफार्म पर लगी टूटी पर हमें ले जाता ...अपनी हथेली को चुल्लू की शक्ल देकर हमें दो-चार चुल्लू पानी पिला देता...हम तृप्त हो कर मां के पास लौट आते ...इतना भरोसा अनजान लोगों पर ...यह कोई बड़ी बात नहीं था उस दौर में ...यह हर तरफ़ दिखाई देता था ... बच्चे को ऐसे ही किसी के साथ पानी पिलाने को भेज देना ..और इतना सीधापन की अगर ख़ुद भी कहीं दो मिनट नीचे उतरने की नौबत आन पहुंची है तो पास बैठे किसी अनजान को यह कह कर नीचे उतर जाना - भाई, ज़रा यह मेरी अटैची का ख़्याल रखना ...मैं बस पांच मिनट में आई। यही नहीं, अमृतसर स्टेशन से गाड़ी चलते ही दूसरे दर्जे के डिब्बे में सब लोगों ने अपनी अपनी रोटी की पोटली निकाल लेनी....और महिलाएं तो ऐसे आपस में घुल-मिल जातीं जैसे पुरानी दोस्त हों...किसी का आम का आचार, किसी की आलू की सब्जी, पकौड़े, किसी की आलू-मेथी, भुजिया ....ऐसा नज़ारा बन जाता सच में जैसे पूल-लंच (यह लफ्‍ज़ हमने बाद में सुना ..) चल रहा हो ....लेकिन हम बड़े होने पर मां से यह शिकायत ज़रूर करते कि बीजी, यह कैसे ..आप कैसे अनजान लोगों के साथ हमें गाड़ी के बाहर पानी पीने के लिए भिजवा देती थीं....मां एक दम सीधी-सपाट ...हंस कर बात को उसी वक्त रफ़ा-दफ़ा कर देती।

दो तीन यादें तो बचपन के सफ़र की हमारी यादों में खुद चुकी हैं, चलिए इन को आप से साझा करते हैं... हम बिल्कुल छोटे से ...मां के साथ अमृतसर से अंबाला जा रहे थे ..दूसरे दर्जे का डिब्बा था ...उन दिनों थर्ड-क्लास का डिब्बा नया नया ही बंद हुआ था ..(अब सोच कर भी हंसी आती है ....उस एक  समझदार ने देशवासियों को केटल-क्लास कहा तो कितना बवाल उठा था...लेकिन पहले थर्ड-क्लास का डिब्बा भी हुआ करता था ...यह पोस्ट पढ़ने वाले कुछ लोगों को तो यह पता भी न होगा शायद। हां, तो बात एक सफ़र की कर रहा था ...तो हुआ यूं कि खिड़की वाली सीट पर बैठे इंसान की एक अंगुली कट गई थी..लहू-लुहान हो गया था ....उसने हाथ खिड़की पर रखा हुआ था और उस के हाथ के ऊपर वह भारी भरकम खिड़की गिर पड़ी थी ...हमें बहुत बुरा लगा था ...हमें क्या, सारे डिब्बे में जैेसे कोहराम मच गया था ... बहुत अपनापन हुआ करता था ...उस की अंगुली कट गई थी या पूरी तरह से दब गई थी ...हमें कुछ याद नहीं ...लेकिन उस का ख़ून बहुत बहा था....

इस हादसे की वजह से यह हुआ कि आज तक जब भी गाड़ी के दूसरे डिब्बे में या स्लीपर क्लास में सफ़र करते हैं ....खिड़की को ऊपर चढ़ा कर उस का लॉकिंग सिस्टम अच्छे से देख लेते हैं ...क्योंकि वह घटना याद आ जाती है ...बहुत से लोगों को वह सुनाई भी है ..अच्छा, एक बात है पहले खिड़की के शीशे बहुत ही भारी भरकम किस्म के हुआ करते थे ...और उसी तरह से लोहे वाली खिड़की भी बहुत भारी और उस से भी भारी उस के आसपास वाला फ्रेम ....मुझे परसों भी यह घटना उस वक्त याद आई जब सुबह मैं एक ट्रेन में कल्याण से चढ़ा ...यह ट्रेन मनमाड़ से मुंबई वी.टी जा रही थी ...मैंने देखा कि गाड़ी में खिड़की बहुत ही खूबसूरत थीं....और सब से ख़ुशग़वार बात यह थी कि इन्हें ऊपर-नीचे करने का कुछ झंझट ही नहीं था...क्योंकि इन स्लाईड कर के आप मर्ज़ी से इधर उधर कर सकते हैं ...मुझे बहुत अच्छा लगा और मन ही मन मैंने रेलवे के इंजीनियर्ज़ की बहुत तारीफ़ की जो दिन-प्रतिदिन सुविधाएं बेहतर करने की सोचते रहते हैं ...बेशक, रेलवे यह सब करती है ....वह बात दूसरी है कि हमारी जनसंख्या ही इतनी है कि रेलवे भी क्या करे...जितना हो सकता है, उस से भी ज़्यादा कर रही है निरंतर। हां, उस वक्त गाड़ी खाली थी ...मैंने उन खिड़कियों की खूब तस्वीरें खींचीं...शायद एक दो बार मैं पहले भी ऐसी स्लाईडिंग खिड़कियां रेल के सवारी डिब्बों में देख चुका हूं ..लेकिन अच्छे से याद नहीं कहां और कब। इसलिए इस ताज़ी बात को अपनी यादों की गठरी में सहेज लेने का ख़्याल आ गया। 



और एक बात बहुत अच्छी लगी ... इस दूसरे दर्जे के डिब्बे में सीटों के नीचे पानी की बोतल रखने के स्टैंड भी बने हुए थे...जब हम बचपन में सफ़र करते थे तो उन दिनों अगर सफ़र लंबा होता और रात बीच में पड़ती तो फर्स्ट के डिब्बे के बाहर, खिड़की के साथ हमारे पिता जी एक मश्क सी बांध देते .....उस में पानी एक दम ठंड़ा हो जाता ... वरना, सुराही तो लेकर ही चलते थे ..और हां, कभी कभी एक फ्लास्क भी साथ में होती थी जो वैसे तो एल्यूमीनियम की होती थी लेकिन उस के बाहर एक फेल्ट नुमा कवर लगा होता था ...उतनी मज़बूत फ्लास्क मैंने कभी नहीं देखी आज तक ...

फिर वह वक्त भी आ गया जब हमारी सीधी-सादी ज़िंदगी में इस प्लास्टिक ने जैसे आग ही लगा दी ..सच में आग ही लगा दी है इसने ...हर तरफ़ इस के इस्तेमाल से हम ने वातावरण को कितना नुकसान पहुंचाया है, यह बात जग-ज़ाहिर है अब ....हां, तो यह १९७७ मई के आसपास की बात है ...हम लोगों ने बंबई सेंट्रल से अमृतसर के लिए डीलक्स ट्रेन पकड़नी थी ...हम बैठ गए...इतने में मेरा बड़ा भाई जो हमें स्टेशन पर छोड़ने आया था ...एक प्लास्टिक की पानी की बोतल ले आया .....मेरे पूछने पर उसने बताया कि उस का दाम सात-आठ रूपये था ...उस की क्षमता यही डेढ़-दो लिटर रही होगी...लेकिन उसे देखते ही हम लोग इतने हैरान हुए थे, मुझे अच्छे से याद है ...एक अजीब तरह का गर्व महसूस किया था उस वक्त तो ...क्योंकि वह बोतल हमारे आस पास किसी के पास नहीं थी....लोग भी उसे देख रहे थे .....लेकिन वह गर्व दो घंटे बाद ही अफ़सोस में बदल गया ...जब उसमें रखा पानी उबलने लगा और हम उसे ही पीने के लिए मजबूर थे ...खैर, उस के बाद तो जैसे प्लास्टिक का तूफ़ान ही आ गया दुनिया में ...हर चीज़ प्लास्टिक की ...जहां तक आप की कल्पना जा सकती है, वह चीज़ प्लास्टिक में उपलब्ध होने लगी। इस का अंजाम हम देख ही रहे हैं...। 

बीजी, आज यादों की गठरी समेटते हुए आप का भी खूब ज़िक़्र चला ...कल रात आप सपने में भी थीं...शुक्रिया...

बहुत हो गई ये यादें-वादें ....ये न ख़त्म होने की .... बंद करता हूं अब इस पिटारे को ..लेकिन वह बात तो मुझे यहां दर्ज करनी ही होगी कि किस तरह से स्टीम इंजन में सफ़र करते वक्त, खिड़की के पास बैठ कर ..अपना हाथ संभालते संभालते और खिड़की से बाहर देखने की ज़िद करते करते चार पांच घंटे के सफ़र के दौरान कैसे हम लोगों का सिर और मुंह काला हो जाया करता था ....नानी के यहां जाते ही हैंड-पंप से पानी निकाल कर नहाना लाज़िम होता था और हां सफ़र के दौरान बार बार आंख में कोयले के टुकड़े पड़ने से आंखों में होने वाली रड़क का इलाज करते करते मां भी थक जाती होंगी ....कभी पानी से बार बार धोने को कहतीं ...कभी दुपट्टे को बार बार फूंक मार कर हमारी लाल हुई थोड़ी सूज रही आंख पर रख देती - इस तरह की सिंकाई से हम पांच मिनट में ठीक हो जाते ...लेकिन फिर वही ज़िद बाहर देखने की ....फिर वही मां के आंचल से राहत मिल जाती ....

जाने कहां गये वो दिन .........!! अच्छा, अगर हो सके तो जाते जाते यह सुंदर गीत ज़रूर सुनिएगा.... यह रहा इस का लिंक ... (इस पर क्लिक करिए) 


अच्छा तो ज्यूली 'एडल्ट' मूवी थी !

आज सुबह मुझे लगभग ५० साल पुराना एक फिल्मी गीत याद आ गया ...मैंने उसे यू-ट्यूब पर सुना ...मुझे अच्छा लगा...उस फ़िल्म का ख्‍याल आ गया ...जनाब आनंद बख़्शी ने वह गीत लिखा था...


मैंने उसे अपनी डॉयरी में लिख कर शेयर किया तो बहुत से कमैंट दिखे ..एक साहब ने लिखा था कि ज्यूली फिल्म वैसे तो एडल्ट मूवी थी लेकिन इस के गानों का जादू सभी लोगों के दिलो-दिमाग़ पर छाया हुआ था...

मुझे ख़्याल नहीं था कि यह एक एडल्ट फिल्म थी ..क्योंकि मैंने तो इसे टीवी पर ही देखा था ...लेकिन अब लिखते हुए लग रहा है कि टीवी पर भले ही देखा होगा लेकिन दूरदर्शन पर नहीं देखा होगा ...तभी देखा होगा जब ये केबल टीवी की आंधी चलने लगी होगी ...क्योंकि ये तो एडल्ट फिल्में भी दिखाने लगे थे लेकिन दूरदर्शन एडल्ट फिल्में - ए सर्टिफिकेट वाली फिल्में प्रसारित नहीं करता था...

मुझे भी फिल्म बहुत ही पसंद आई थी और इस के गीतों की तो बात ही क्या करें...एक से बढ़ कर एक ... लिरिक्स भी कमाल के, गायकों और संगीतकारों का जादू भी था और ऊपर से इन का इतना उम्दा फिल्मांकन...ऐसे गीत ही लोगों के दिलो-दिमाग़ पर छाए रहते हैं। 

एडल्ट फिल्मों से याद आया कि पिक्चर हाल में भी जब फिल्म लगती थी तो वहां भी बड़ा बड़ा लिख कर टंगा होता था कि यह फिल्म १८ साल से कम उम्र के लोगों के लिए नहीं है। आज १९७५ के आसपास की बात होगी ...मैं १२-१३ बरस का रहा हूंगा...दिल्ली में मेरे पिता जी, ताऊ जी, चाचा जी, बड़ी बुआ का बेटा (जो लगभग मेरे चाचा की उम्र का ही था), उन का बेटा जो मेरी उम्र का था और मैं ...हम सब लोग एक थियेटर में गए...लेकिन वहां जाकर पता चला कि वहां पर तो एडल्ट फिल्म लगी हुई है ...मुझे याद है उन सब की वह फिल्म देखने की बड़ी हसरत थी ...(मुझे याद नहीं कौन सी फिल्म थी) ...लेकिन ये जो १२-१३ साल के दो नग उनके साथ थे उन की वजह से उन्हें टिकटें नहीं मिली... उन्होंने पता नहीं हमारे बारे में क्या होगा या न कहा होगा....लेकिन उन्हें टिकट नहीं मिली और फिल्म देखे ब़गैर सब लौट आए.. उन्होंने कहा होगा कि ये तो छोटे बच्चे हैं ...जहां तक मुझे ख्याल है मैंने भी धीेरे से कुछ कहा तो था कि हमारा क्या है, हम तो आंखें बंद किए रहेंगे। लेकिन एक बालक की बेवकूफ़ाना दलील कौन सुनता!

अच्छा, अभी याद आ रहा है कि लोगों को पता कैसे चलता था कि फलां फलां फिल्म एडल्ट फिल्म है ....एक तो बड़े बड़े चौराहों पर लगे हुए पोस्टर पर यह लिखा रहता था ..लिखा क्या रहता था, बड़े से 'A' का ठप्पा लगा रहता था ...उस के आसपास एक सर्कल खींचा हुआ होता था ... और थियेटर से भी पता चल ही जाता था....और अख़बार में छपने वाले फिल्मों के इश्तिहार से भी पता चल जाता था कि कौन सी फिल्म यू-सर्टिफिकेट है और कौन सी ए-सर्टिफिकेट ....

दूरदर्शन में भी जहां तक मुझे ख़्याल है ए-सर्टिफिकेट फिल्में नहीं दिखाते थे ...और सामान्य फिल्मों में भी अगर कुछ आपत्तिजनक दृश्य होते थे तो उन्हें काट कर ही दिखाया जाता था...और इस के बावजूद हर घर में एक सेंसरशिप और भी हुआ करती थी ....कभी भी कोई आपत्तिजनक दृश्य आने की जैसे ही संभावना दिखती ..किसी को चूल्हे पर चढ़ी हुई दाल देखना याद आ जाता, किसी को बीड़ी-सिगरेट या माचिस की डिब्बी ढूंढना या किसी को वॉश-रूम जाने का या बाहर जा कर पानी पीने का विचार आ जाता...

अच्छा, अभी याद आ रहा है कि लोगों को पता कैसे चलता था कि फलां फलां फिल्म एडल्ट फिल्म है ....एक तो बड़े बड़े चौराहों पर लगे हुए पोस्टर पर यह लिखा रहता था ..लिखा क्या रहता था, बड़े से 'A' का ठप्पा लगा रहता था ...उस के आसपास एक सर्कल खींचा हुआ होता था ... और थियेटर से भी पता चल ही जाता था....और अख़बार में छपने वाले फिल्मों के इश्तिहार से भी पता चल जाता था कि कौन सी फिल्म यू-सर्टिफिकेट है और कौन सी ए-सर्टिफिकेट ....

दूरदर्शन में भी जहां तक मुझे ख़्याल है ए-सर्टिफिकेट फिल्में नहीं दिखाते थे ...और सामान्य फिल्मों में भी अगर कुछ आपत्तिजनक दृश्य होते थे तो उन्हें काट कर ही दिखाया जाता था...और इस के बावजूद हर घर में एक सेंसरशिप और भी हुआ करती थी ....कभी भी कोई आपत्तिजनक दृश्य आने की जैसे ही संभावना दिखती ..किसी को चूल्हे पर चढ़ी हुई दाल देखना याद आ जाता, किसी को बीड़ी-सिगरेट या माचिस की डिब्बी ढूंढना या किसी को वॉश-रूम जाने का या बाहर जा कर पानी पीने का विचार आ जाता...

1990 के आसपास जब केबल टीवी- सेटेलाइट टीवी आ गया ..तो धीरे धीरे लोगों में सभी तरह के प्रोग्राम एक साथ बैठ कर देखने की स्वीकार्यता बढ़ने लगी ...इन प्रोग्रामों को सारा कुनबा एक साथ बैठ कर देखने भी लगा और बीच बीच में कुछ किरदारों को, उन की वेश-भूषा, उन की बोल-वाणी को कोसने तो लगते.....लेकिन अब उस बैठक से कोई भी उठने को तैयार न होता..

इसके बाद क्या हुआ...लिखते लिखते याद आ गया ....मैं उन दिनों मॉस-कम्यूनिकेशन पढ़ रहा था ...एक प्रोफैसर ने एक दिन क्लास में हमें कहा कि जब से टीवी बैठक से निकल कर घर के सभी सदस्यों के कमरों में पहुंच गये ....बस, उस दिन से मामला बिल्कुल कंट्रोल के बाहर हो गया.......आज हम देख रहे हैं कि वेब-सीरीज़ में और रिएटली-शो में क्या क्या परोसा जा रहा है ...लेकिन बात वही है मीडिया कंवर्जैंस का दौर कब का आ चुका है ...आज हम टीवी स्क्रीन के मोहताज थोड़े ही न रहे हैं ....सब कुछ सिमट कर हमारी हथेली में आ चुका है ...जो कुछ भी देखना है वह हमारी अंगुली से तय हो जाता है, कोई बाहरी कंट्रोल नहीं, घर में किसी की रोका-टोकी नहीं, कोई सैंसर नहीं, किसी को बहाना बना कर उठ कर बाहर जाने की ज़रूरत नहीं ....किसी तरह के पर्दे की ज़रूरत नहीं ....

यह कहां आ गये हम ....!!

वो फोटोकापी मशीन थी या कोई रॉकेट लांचर

मुझे पिछले कईं बरसों में कईं बार यह ख़्याल आया कि मुझे फोटोकापी के बारे में भी तो अपने संस्मरण लिखने चाहिए ...लेकिन पता नहीं मैं अपने आलस की...